ऋण

  • शास्त्रों में पुरुषार्थ सिद्धान्त, पंचमहायज्ञ, ऋण सिद्धान्त आदि गृहस्थाश्रम से ही सम्बन्धित बताए गए हैं।
  • ऋण सिद्धान्त से तात्पर्य तीन ऋणों से मुक्ति से है। ये तीन ऋण देव, ऋषि तथा पितृ ऋण के नाम से जाने जाते हैं। इस ऋणत्रय से मुक्त होना गृहस्थ का महत्वपूर्ण कर्तव्य बताया गया।
  • भारतीय संस्कृति के अनुसार मनुष्य जन्म लेते ही अपने देवों, ऋषियों और पितरों के प्रति ऋणी हो जाता है।
  • इसीलिए उपनयन संस्कार के अवसर पर ब्रह्मचारी को जो तीन सूत्रों वाला यज्ञोपवीत धारण कराया जाता है। उसके तीन सूत्र ऋणत्रय के ही प्रतीक हैं। इन तीन ऋणों से मुक्त होने का वर्णन विभिन्न शास्त्रीय ग्रन्थों – विष्णुधर्मोत्तरपुराण, मिताक्षरा श्रुति, मनुस्मृति, महाभारत आदि में मिलता है।

देव ऋण

  • मनुष्य दिव्यशक्तियों के कारण ही उपलब्ध सृष्टि के संसाधनों का उपयोग कर पाता है।
  • ईश्वर की कृपा से ही उसे स्वच्छ वायु, जल, प्रकाश और उर्जा मिल पाती है।
    • अतः मनुष्य को ईश्वर तथा देवों के प्रति ऋणी होना चाहिए और यज्ञों व देवस्तुतियों द्वारा देवऋण से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए।

    ऋषि ऋण

    • ब्रह्मचर्य आश्रम में मनुष्य ऋषियों और गुरु कृपा द्वारा ज्ञानवान बनता है।
    • अतः ज्ञानज्योति से जीवन पथ को आलोकित करने वाले गुरुओं के प्रति ऋणी होना चाहिए।
    • उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान को प्रयोग में लाना तथा उस ज्ञान से दूसरों को भी लाभान्वित करना ऋषि ऋण से मुक्ति का उपाय है।

    पितृ ऋण

    • माता पिता सन्तानोत्पत्ति द्वारा वंश परम्परा को बनाए रखने तथा संसार की सृष्टि प्रकिया में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।
    • संसार में आने और यहाँ के सुख भोगने का सामर्थ्य माता पिता और पूर्वजों द्वारा ही मिलता है।
    • अतः मनुष्य को माता पिता और पूर्वजों के प्रति ऋणी माना जाता है, यही पितृ ऋण है।
    • श्राद्ध द्वारा पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करके तथा सन्तानोत्पत्ति द्वारा सृष्टि प्रकिया में सहयोग करके ही पितृ ऋण से मुक्ति पाई जाती है। यह सृष्टि की निरन्तरता का प्रतीक है।
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