वर्णाश्रम/वर्णव्यवस्था

वर्णाश्रम का परिचय

  • ‘वर्ण’ शब्द का अर्थ रंग और वर्ण दोनों ही होता है।varnasharam
  • प्राचीन समय में, वर्ण का अर्थ उस समूह से था जोकि एक विशेष प्रकार के पेशे को अपनाता था या समाज द्वारा निर्धारित कार्यों को करता था।
  • वर्ण-व्यवस्था सामाजिक कार्यों व कर्त्तव्यों को विभिन्न समूहों में विभाजित करने की वह व्यवस्था है जिसका आधार प्राकृतिक प्रभाव व गुण हैं।
  • वर्ण व्यवस्था श्रम-विभाजन की सामाजिक व्यवस्था का ही दूसरा नाम है।

           वर्णाश्रम की उत्पत्ति के सिद्धान्त

  1. दैवी उत्पत्ति सिद्धान्त
  • इस सिद्धान्त में वर्णों की उत्पत्ति दैवी (ईश्वरी) मानी गयी है अर्थात् इसका सीधा अर्थ यह है कि वर्ण व्यवस्था देव कृपा से उत्पन्न हुई है या देवताओं ने वर्णों को निर्मित किया है।
  • ऋग्वेद के पुरूष सूक्त में सर्वप्रथम वर्ण व्यवस्था को देवकृत बताया गया है जहां उल्लेखित है-

ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

उरूदूतस्य यद्वैश्यः पद्धयां शूद्रोऽजायत।।

  • इसी प्रकार मत्स्य पुराण, वायु पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्माड पुराण, महाभारत एवं गीता में भी ईश्वर से वर्णों की उत्पत्ति बतायी गयी है।
  • बहुत संभव है वर्ण व्यवस्था को दैवी उत्पत्ति से इसी लिए जोड़ा गया हो ताकि कोई इस नियम व्यवस्था का उल्लघंन न करे ।
  1. गुण उत्पत्ति सिद्धान्त
  • वर्ण व्यवस्था में वर्णों का निर्धारण गुण के आधार पर हुआ है और गुणों के आधार पर ही चारों वर्णों की उत्पत्ति हुई है।
  • भगवत गीता, मनुस्मृति, विष्णु पुराण आदि में सत्व गुण से ब्राह्मण की रजोगुण से क्षत्रिय, रज एवं तम गुण से वैश्य की तथा तम गुण से शूद्र की उत्पत्ति बतायी है।
    • सत्व गुण ज्ञान विज्ञान, वेदज्ञ, धर्मज्ञ, शुद्ध आचरण युक्त, रज गुण, शौर्य, शक्ति प्रदर्शन, रक्षा कार्य, तथा तम गुण लोभ, प्रमादयुक्त, अज्ञानयुक्त होता था। अतः जो व्यक्ति जिस गुण का होता था, उस गुण के साथ ही उसका वर्ण निर्धारित हो जाता था।
    1. रंग उत्पत्ति सिद्धान्त
    • रंग से वर्ण की उत्पत्ति के सिद्धान्त से तात्पर्य यह है कि व्यक्ति का रंग के आधार वर्ण निर्धारित होता था।
    • रंग के सिद्धान्त की जड़ें सर्वप्रथम ऋग्वेद में ही मिलती हैं। जहाँ श्वेत वर्ण आर्यो का तथा कृष्ण वर्ण अनार्यों (दास) का बताया गया।
    • महाभारत के शान्ति पर्व में रंग से उत्पत्ति के सिद्धान्त की स्पष्ट व्याख्या की गयी है कि ब्रह्मा ने चारों वर्णों की उत्पत्ति की है, जिसमें ब्राह्मण का श्वेत रंग, क्षत्रिय का लाल रंग, वैश्य का पीला रंग तथा शूद्र का काला।
    1. कर्म उत्पत्ति सिद्धान्त
    • व्यक्ति जैसा कर्म करेगा उसे वैसा ही फल अर्थात वर्ण मिलेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति जितना अधिक सद्कर्म करेगा, उसे उतना ही अच्छा वर्ण अगले जन्म में मिलेगा।
    • कर्म के सिद्धान्त में अपने वर्ण के लिए निर्धारित कर्तव्यों के व्यवस्थित ढंग से कार्य करते रहने की शिक्षा भी निहित है और इसे ही वर्ण धर्म की संज्ञा भी दी गयी है।
    • महाभारत के शांन्तिपर्व में वर्णित है कि पहले सिर्फ ब्राह्मण की ही उत्पत्ति हुई थी, बाद में कर्मानुसार विभिन्न वर्णों की उत्पत्ति हुई।
    • छांदोग्य, बृहदारण्यक उपनिषदों, ब्राह्माण्ड पुराण, वायु पुराण आदि में कर्मफल के अनुसार पुनर्जन्म की बात कही गयी है। अतः कर्म का सिद्धान्त व्यक्ति के कर्मों के अनुसार वर्ण के निर्धारण की बात करता है।
    1. जन्म उत्पत्ति सिद्धान्त
    • जिस व्यक्ति का जन्म, जिस कुल या वर्ण में हुआ है, वह जीवन पर्यन्त उसी वर्ण का कहलायेगा, चाहे उसके कर्म कैसे भी हो, कुछ भी हो ।
    • अर्थात् ब्राह्मण कुल में जन्मा व्यक्ति कर्मों से चाहे अज्ञानी या अधम हो ब्राह्मण ही रहेगा और शूद्र या अन्य वर्ण का कोई भी व्यक्ति चाहे कितना भी ज्ञानी या धार्मिक हो ब्राह्मण नहीं बन सकता।
    • इस के ज्वलंत उदाहरण द्रोणाचार्य, कृपाचार्य अश्वत्थामा, परशुराम आदि हैं, जिन्होंने अपने क्षत्रिय कर्म से पृथ्वीलोक में मिसाल कायम की थी, किन्तु वे सदैव ब्राह्मण ही कहलाये और विश्वामित्र कठोर तप और अपार ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी क्षत्रिय से ब्राह्मण कभी नहीं बन पाये।
    • महाभारत में वर्णित कर्ण महाबली, महादानी और श्रेष्ठ क्षत्रिय कर्म करने के बाद भी सूत पुत्र ही कहा गया। अतः स्पष्ट है कि वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित हो चुकी थी।अष्टांगिक मार्ग को भिक्षुओं का ‘कल्याण मित्र’ कहा गया।

    वर्ण धर्म या वर्णों के कर्तव्य

    (1) ब्राह्मण के धर्म या कर्तव्य : ब्राह्मणों का सबसे महत्वपूर्ण धर्म या कर्तव्य इंद्रियों पर संयम रखना था इसके अतिरिक्त जैसा की गीता की अंग्रांकित श्लोक से स्पष्ट होता है- अंतःकरण की शुद्धि, इंद्रियों का दमन, पवित्रता धर्म के लिए कष्ट सहना, क्षमावान होना, ज्ञान का संचय करना तथा परम तत्व (सत्य) का अनुभव करना ब्राह्मण का परम कर्तव्य है।

    (2) क्षत्रिय के धर्म या कर्तव्य :- मनुस्मृति के अनुसार क्षत्रियों का धर्म प्रजा की रक्षा करना, दान देना भीस्य विषय भोग से दूर रहना, अध्ययन करना तथा अपनी शक्ति का अच्छा उपयोग करना है। जिस्म का कथन है कि जो क्षत्रिय बिना घायल हुए ही अर्थात बिना युद्ध किए युद्धभूमि से लौट आता है उसकी क्षत्रिय धर्म के अनुसार प्रशंसा नहीं की जा सकती।

    क्षत्रिय अथवा राजा का धर्म प्रजा में भी अपने धर्म के प्रति अनुराग उत्पन्न करना तथा उसे सदकार्यों में लगाना है, गीता में क्षत्रियों के निम्न सात गुणों का उल्लेख मिलता है।

    (3) वैश्यों के धर्म या कर्तव्य :- महाभारत में कहा गया है कि दान देना अध्ययन करना, यज्ञ करना तथा पवित्रता पूर्वक धन संग्रह करना वैश्य धर्म है। वैश्य उद्योग में रहकर पिता के समान ही पशुओं का पालन करें क्योंकि प्रजापति ब्रह्मा ने पशुओं का भार वैश्यों को पशु ही सौपा है। मनुस्मृति में वैश्यों के सातकर्तव्य बताए गए है।

    (4) शूद्र के धर्म व कर्तव्य :- मनुस्मृति के अनुसार शूद्रों का एक मात्र धर्म अपने से उच्च तीनों वर्णों की बिना किसी ईर्ष्या भाव के सेवा करना है। शूद्रों को धन संग्रह या उच्च वर्ण का व्यवसाय नहीं करना चाहिए इनके लिए अध्ययन व अध्यापन यज्ञ करना व करवाना सब वर्जित था।

Facebook
Twitter
Telegram
WhatsApp
giphy2028cover29

सोशल-मीडिया क्या है? इतिहास, प्रकार, लाभ-हानि और प्रमुख सोशल नेटवर्किंग साइट01

सोशल-मीडिया क्या है? मीडिया :- संचार का माध्यम सामाजिक संजाल स्थल :-सोशल-मीडिया एक ऑनलाइन मंच है जो उपयोगकर्ता को अपने

Read More »
internet retro

इंटरनेट का परिचय, विकास, उपयोग, प्रोटोकॉल, शब्दावलियाँ और भारत में इंटरनेट001

इंटरनेट का परिचय परिचय क्या है– यह दुनिया भर में फैले हुए अनेक छोटे-बड़े कम्प्यूटर नेटवकों के विभिन्न संचार माध्यमों

Read More »
1 Jwt NggFZflXNmkndLYLJA

कृत्रिम बुद्धिमत्ता क्या है? विकासक्रम, सिद्धांत, प्रकार और अनुप्रयोग, भारत और विश्व में कृत्रिम बुद्धिमत्ता

कृत्रिम बुद्धिमत्ता क्या है? क्या है – कंप्यूटर विज्ञान की वह शाखा है जो कंप्यूटर के इंसानों की तरह व्यवहार

Read More »
Scroll to Top