वेदान्त दर्शन

वेदान्त दर्शन का परिचय

  • सम्पूर्ण विश्व वांगमय की सर्वप्रथम धरोहर के रूप में वेद माने जाते हैं, जो मनुष्य के जीवन को प्रशस्त करते हैं।
  • वेद दो भागों में विभक्त है – मन्त्र तथा ब्राह्मण । देवताविशेष की स्तुति में प्रयुक्त होने वाले अर्थ स्मारक वाक्यों को मन्त्र तथा यज्ञानुष्ठानादि का विस्तारपूर्वक वर्णन जहाँ प्राप्त होता है वे ब्राह्मण ग्रन्थ कहलाते हैं। मन्त्र समुदाय को संहिता भी कहते हैं।vedanta darshan e1709703481518
  • संहिता एवम् ब्राह्मणात्मक वेद के अन्तिम भाग उपनिषद् हैं, जिनमें अध्यात्मविषयक गम्भीर विवेचन प्राप्त होता है।
  • उपनिषद् को ही वेदान्त कहा गया है (वेदान्तो नामोपनिषद् प्रमाणम्, वेदान्तसार) क्योंकि वे वेद के अन्तिम भाग कहलाते हैं। उपनिषद् ग्रन्थों में वेदों के अर्थ सरलतम रूप में व्याख्यायित है।
  • उपनिषदों में जिस ब्रह्म को जगत् का कारण, आत्मा का आधार तथा मुक्तिदाता कहा गया है, उसी की और भी विस्तृत व्याख्या करना वेदान्त का मुख्य उद्देश्य है।
  • मीमांसा जहाँ वेदों के कर्मकाण्ड की व्याख्या करता है वहं वेदान्त दर्शन उपनिषदों के ज्ञानकाण्ड की व्याख्या करता है।
  • उपनिषद् वेदों के उत्तर-भाग है, इसलिए इसे उत्तरमीमांसा भी कहा जाता ह

वेदान्त दर्शन का साहित्य

1) बादरायण : समयान्तर में औपनिषद्-सिद्धान्तों में आपाततः विरोध प्रतीत होने के कारण उसका परिहार तथा एक वाक्यता करने के उद्देश्य से महर्षि बादरायण ने ‘ब्रह्मसूत्र’ की रचना की। इसमें ब्रह्मविषयक विवेचन किया गया है।

2) गौडपाद : अद्वैत वेदान्त के प्रथम आचार्य के रूप में आचार्य गौडपाद को माना जाता है। इन्होंने माण्डूक्योपनिषद् पर एक कारिका ग्रन्थ की रचना की जिसका नाम ‘माण्डूक्यकारिका’ है।

3) आचार्य शंकर : अद्वैत वेदान्त के प्रतिष्ठापक आचार्य शंकर ने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा है जो ‘शारीरकभाष्य’ नाम से विश्वविख्यात है। उनका कर्तृत्त्व अत्यन्त व्यापक है दशोपनिषद्भाष्य, भगवद्गीताभाष्य, उपदेशसाहस्री, विवेकचूडामणि, दक्षिणामूर्तिस्त्रोत, सौन्दर्यलहरी इत्यादि उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।

4) पद्मपाद – शंकराचार्य के शिष्य पद्मपाद ने शारीरकभाष्य के चतुःसूत्रीपर्यन्त भाग पर ‘पञ्चपादिका’ नामक व्याख्या का प्रणयन किया है। यह ग्रन्थ अद्वैतवेदान्त में ‘विवरणप्रस्थान’ का प्रतिपादक माना जाता है।

5) श्रीहर्ष : श्रीहर्ष ने वेदान्त शास्त्रार्थ पर नव्यन्याय शैली में एक विद्वतापूर्ण ग्रन्थ ‘खण्डनखण्डखाद्य’ का प्रणयन किया है।

6) विद्यारण्य : इन्होंने वेदान्त पर ‘पञ्चदशी’ नामक एक उत्कृष्ट ग्रन्थ की रचना की, जो पद्यबद्ध रूप में है। ‘विवरणप्रमेयसंग्रह’, ‘जीवनमुक्तिविवेक’, ‘वैयासिकन्यायमाला’, ‘दृग्दृश्यविवेक’ आदि भी उनके अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं।

वेदान्त दर्शन के तत्त्वों का विचार

क) ब्रह्म : शंकराचार्य के दर्शन में एकमात्र ब्रह्म ही परम सत्ता है जो अनादि, अनन्त, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान अद्वैत एवं देश-काल से परे है। यही मूल तत्त्व है। यह समस्त जगत् का आधार है। साथ जी यह सर्वोच्च ज्ञान भी है, इसके ज्ञान से ही हमारा अज्ञान नष्ट होता है। यह सच्चिदानन्द स्वरूप है।

‘ब्रह्म’ शब्द ‘बृह’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है- ‘बढना’ या ‘विस्तार को प्राप्त होना’ । परमतत्त्व को इसलिए ‘ब्रह्म’ कहा गया है क्योंकि यह सर्वाधिक विस्तृत अर्थात् सबसे महान् सत्ता है, ‘बृहत्तमत्त्वाद् ब्रह्म । ब्रह्म को ही अद्वैत कहा गया है, अद्वैत का अर्थ है- एक ही तत्त्व, जिसे परम सत्ता कहते हैं। उपनिषदों में अद्वैत के विषय में कहा गया है ‘न तु तद् द्वितीयम् अस्ति, ‘नेह नानास्ति किञ्चन आदि।

ख) जगत् : समस्त नामरूप, क्रिया-कारक और उनके फल, जगत् के अन्तर्गत आते हैं (जगतो नामरूपक्रियाकारकफलजातस्य)। आचार्य शंकर ने यद्यपि जगत् के विषय में कई स्थानों पर उसे मिथ्या, मायिक, रस्सी में सर्प के समान भ्रामक कहा है, किन्तु उसे ‘आकाश-कुसुम’ के समान असत् नहीं कहा है।

ग) त्रिविध सत्ता : आचार्य शंकर के अनुसार वे केवल एक ही सत्ता स्वीकार करते हैं इसे वे अद्वैत ब्रह्म कहते हैं, परन्तु अनुभूत पदार्थों के अस्तित्व के लिए वे सत्ता के अन्य स्तर बताते हैं-

  1. प्रातिभासिक सत्ता : ऐसी सत्ता जिसका हमें केवल आभास हो, जिसकी सत्यता पर हमें स्वयं अविश्वास हो, जैसे-स्वप्न के पदार्थों की सत्ता आदि।
  2. व्यावहारिक सत्ता : जगत् के पदार्थों की सत्ता, जैसे-घर आदि।
  3. पारमार्थिक सत्ता : पारमार्थिक सत्ता उसकी है जिसका तीनों कालो मे बाध (नाश) नहीं होता अर्थात् जो अनश्वर, नित्य सत्ता है। ऐसी सत्ता केवल ब्रह्म की है।

घ) माया : आचार्य शंकर के दर्शन में ब्रह्म की रहस्यमयी शक्ति का नाम माया है, जिसके द्वारा ईश्वर जगत् का निर्माण करता है। माया का अर्थ है जो जीव को मोहित करे अथवा जो जीव को मोहित कराये।

माया की दो शक्तियाँ हैं – आवरण शक्ति एवं विक्षेप शक्ति। जो सत्य को ढंकता है अथवा छिपाता है उसे ‘आवरण शक्ति’ कहा गया है, इसी शक्ति के द्वारा माया ब्रह्म के स्वरूप को छिपा देती है, उस पर पर्दा डाल देती है। विक्षेप शक्ति का अर्थ है वास्तविक वस्तु के स्थान पर अवास्तविक को प्रस्तुत करना, जैसे रस्सी सर्प में रस्सी के स्थान पर सर्प की प्रतीति कराना।

च) मोक्ष : अद्वैतवेदान्त के अनुसार जीव एवं ब्रह्म अभिन्न हैं किन्तु जब जीव अपने को ब्रह्म से भिन्न समझता है तो उसका यह अज्ञान ही बन्धन का मूलकारण है। आचार्य शंकर मोक्ष की परिभाषा करते हैं ‘स्वात्मन्यवस्थानम् मोक्षः’ (केनोपनिषद् शांकरभाष्य) अर्थात् आत्मा की अपने स्वरूप में अवस्थिति ही मोक्ष है। अद्वैतमत में मोक्ष नित्य आनन्द की प्राप्ति है।

अद्वैतवेदान्त में मुक्ति के दो प्रकार बताए गए हैं – जीवनमुक्ति और विदेहमुक्ति। इनके अनुसार मोक्ष, आत्मा का परमात्मा से अभेद ज्ञान है और यह ज्ञान मनुष्य जब जीवितावस्था में ही प्राप्त कर लेता है, यही जीवनमुक्ति है। जीवनमुक्ति के प्रारब्ध कर्मों का जब क्षय हो जाता है तथा शरीर शान्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है, यही विदेह मुक्ति है।

 

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